Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद




हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नज़र आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गये और निशाना बाँधकर गोली चलायी। निशाना ख़ाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा -- अब?
'कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा। '
दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा -- गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ।
'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता। '
'बड़े निर्दयी हो तुम, सच कहती हूँ। '
'जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता। '
'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक़्त मुझे अपने साथ ले जाते? '
मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं। दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी। मेहता खड़े-खड़े बोले -- अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।
'मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे? '
'मैं जानता हूँ, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो। '
'कैसे जानते हो? '
'नये युग की देवियों की यही सिफ़त है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कन्धा मिलाकर चलना चाहती हैं। '
मालती ने झेंपते हुए कहा -- तुम कोरे फ़िलासफ़र हो मेहता, सच।
सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बन्दूक़ चलायी। मोर उड़ गया।
मालती प्रसन्न होकर बोली -- बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।
मेहता ने बन्दूक़ कन्धे पर रखकर कहा -- तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं तुम्हें दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा।
मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली -- फ़िलासफ़रों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया। उस ग़रीब को मार ही डालते; मगर मैं यों न छोड़ूँगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।
मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजलनेत्र होकर बोली -- मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी।
मेहता ने तेज़ी से क़दम बढ़ाये। मालती उन्हेंदेखती रही। जब वह बीस क़दम निकल गये, तो झुँझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनन्द न था। समीप आकर बोली -- मैं तुम्हें इतना पशु न समझती थी।
'मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा। '
'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। '
'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी। '
एक चौड़ा नाला मुँह फैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों से लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्व पर आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणेंजल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तो लौटना पड़ा।
'क्यों? उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे। '
'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी। '
'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ। '
'हाँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है। '
मेहता ने पानी में क़दम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली -- पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ।
'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज़ है। '
'कोई हरज़ नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, ख़बरदार। '
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाये। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले -- तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा -- होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता था, क़दम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भरकर कहा -- मैंने तुम्हारे-जैसे बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। ख़ैर, आज सता लो, जितना सताते बने; मैं भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बन्दूक़ सँभालती हुई उनसे चिमट गयी। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा -- तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा -- तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी है?
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया। मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली -- अगर कोई देख ले?
'भय तो लगता है। '
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा -- अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा। मेहता ने आहत स्वर से कहा -- तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ?
'मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ। '
'सच कहती हो मालती? '
'तुम क्या समझते हो? '
'मैं! कभी बतलाऊँगा। '
पानी मेहता के गर्दन तक आ गया। कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली, मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूँगी। उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक़ उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा; लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की ज़रूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी। पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तुम मुझे उतार दो।
'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय। '
'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिनी है। '
'मुझे इसकी मज़दूरी दे देना। '
मालती के मन में गुदगुदी हुई।
'क्या मज़दूरी लोगे? '
'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आय तो मुझे बुला लेना। '
किनारे आ गये। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोड़ा, जूते का पानी निकाला, मुँह-हाथ धोया; पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे। उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते हुए कहा -- यह दिन याद रहेगा।
मेहता ने पूछा -- तुम बहुत डर रही थीं?
'पहले तो डरी; लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो। '
मेहता ने गर्व से मालती को देखा -- इनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।
'मुझे यह सुनकर कितना आनन्द आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती? '
'तुमने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो; और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़त में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे। '
मेहता मुस्कराये। इन शब्दों का संकेत ख़ूब समझ रहे थे।
'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि तुमसे प्रेम करता हूँ। मुझसे विवाह करोगी? '
'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा! रात-दिन जलाकर मार डालोगे। ' और मधुर नेत्रों से देखा, मानी कह रही हो -- इसका आशय तुम ख़ूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो।
मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा -- तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं इसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।
मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था। उसने पूछा -- बताओ, तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट होगे?
'बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग--प और हाव-भाव और नाज़ो-अन्दाज़ का मूल्य इतना ही है; जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे ज़रूरत नहीं। '
मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर साँस खींचते हुए कहा -- तुमसे कोई पेश न पायेगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या ख़याल है?
मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर कहा -- तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो; लेकिन प्रेम नहीं कर सकती।
मालती ने पैनी दृष्टि से ताककर कहा -- झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो।
दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे; पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के सम्भाषण में उसे एक ऐसा आनन्द आ रहा था, जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गयी थी, जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी। धायँ की आवाज़ हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खाकर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।
'अब? '

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